तीर्थयात्रा करने से संसार यात्रा समाप्त होती है

                प्रत्येक धर्म और सम्प्रदाय के अपने-अपने तीर्थ होते हैं, जो उनकी श्रद्धा से जुड़े होते हैं। वे सभी अपने तीर्थों की यात्रा बड़ी भक्ति से करने जाते हैं और आत्मशांति प्राप्त करते हैं । तीर्थस्थान पवित्रता, शांति और कल्याण के धाम माने जाते हैं । जैनधर्म में भी प्राचीनकाल से तीर्थ का विशेष महत्त्व रहा है। जैनधर्म के अनुयायी प्रतिवर्ष बड़ी श्रद्धापूर्वक अपने तीर्थों की यात्रा करते हैं, उनका विश्वास है कि तीर्थयात्रा से पुण्य संचय होता है और परम्परा से मुक्तिलाभ की प्राप्ति होती है। इसी विश्वास के कारण बालक, वृद्ध, युवा सभी तीर्थभक्त लोग सम्मेदशिखर जैसे दुरूह पर्वतों की वंदना अपने पैरों से करने की भावना करते हैं। तीर्थक्षेत्रो का माहात्म्य आचार्यों ने लिखा है-

श्री तीर्थपान्थरजसा विरजी भवन्ति, तीर्थेषु विभ्रमणतो न भवे भ्रमन्ति ।
तीर्थव्ययादिह नराः स्थिरसंपदः स्यु, भव्या भवन्ति जगदीशमथाश्रयन्तः ।।

अर्थात् तीर्थभूमि के मार्ग की रज इतनी पवित्र होती है कि उसके आश्रय से मनुष्य रज रहित अर्थात् कर्ममल रहित हो जाता है। तीर्थों पर भ्रमण करने से अर्थात् यात्रा करने से संसार का भ्रमण छूट जाता है।